भगवान जगन्नाथ के अवतरण और उनकी भक्ति धारा के प्रकटीकरण का पावन विवरण स्कंद पुराण , सप्तम खंड के ‘पुरुषोत्तम माहात्म्य’, कवि सरल दास के उड़िया महाभारत के ‘मूसल पर्व’ एवं ‘वन पर्व’ और ‘देउला तोला’ में प्राप्त होता है। पुरुषोत्तम माहात्म्य’ में उल्लेखित राजा इंद्रद्युम्न की कथा के अनुसार भगवान जगन्नाथआदिकाल में सबर जनजाति के प्रधान विश्ववसु के द्वारा घने जंगलों में पूजे जाते थे। फिर वे अचानक चमत्कारिक रूप से दारू (पवित्र काष्ठ के तने या लट्ठे ) के रूप में पुरी में प्रकट हुए। भगवान जगन्नाथ ,अग्रजबलभद्र और भगिनी सुभद्रा के विग्रहों के स्वरूप पर जनजातीय प्रभाव के स्पष्टीकरण के लिए उपर्युक्त वर्णित ग्रंथों में एक कथा कही गई कि राजा इंद्रद्युम्न के कारीगरों नेउसे पवित्र दारू से मूर्ति गढ़ने की बहुत कोशिश की, किंतु सफल नहीं हो सके। तब भगवान विश्वकर्मा स्वयं एक गरीब बढ़ई के रूप में राजा के समक्ष आकर मूर्ति गढ़ने की स्वीकृति मांगी। प्रारंभ में राजा ने उन के बाह्य रूप को देखकर उनका उपहास उड़ाया। किंतु कोई और विकल्प न देख कर राजा तैयार हो गए। बढ़ई रूपधारी भगवान विश्वकर्मा की मात्र एक ही शर्त थी कि वे जब बंद कमरे में मूर्ति गढ़ रहे हों तो कोई उन्हें व्यवधान न पहुंचाए। “ दउला तोला “ की कथा के अनुसार कई दिवस बीत जाने पर रानी गुंडिचा ने उत्सुकतावश उस कमरे में किसी छिद्र से देखने की कोशिश की। तो भगवान विश्वकर्मा ने अपने निर्माण कार्य को अधूरा छोड़ दियाऔर अधूरी मूर्ति छोड़कर ही चले गए। उड़िया महाभारत के ‘वन पर्व’ के अनुसार स्वयं राजा को कई दिनों से उसे कमरे से आवाज आती नहीं सुनाई पड़ी तो उन्हें लगा कि वह बूढ़ा बढ़ई कहीं मृत्यु को प्राप्त नहीं हो गया हो। इसी जिज्ञासा के कारण उन्होंने कमरे में झांकने कोशिश की और शर्त भंग होने पर भगवान विश्वकर्माअंत:ध्यान हो गए। मूर्तियां अधूरी रह गईं। इतिहासकारों , यथा: ए . इशमैन , हरमन कुल्के ,गया चंद्र त्रिपाठी, सुवीरा जायसवाल , जी. एन . दाश आदि ने भगवान जगन्नाथ और उनकी भक्ति धारा के उद्भव और विकास के अलग-अलग आयामों पर शोध कार्य किया है। इतिहासकार जी . द एन . दाश के अनुसार भगवान जगन्नाथ के 118 ( एक सौ अठारह ) पुजारियों और सेवकों की सूचीबद्ध श्रेणियों में दैत्त् और शुद्ध / शुद सउरा भी सम्मिलित हैं। दैत और सऊरा की जनजाति पृष्ठभूमि तो स्पष्ट है। ए . इशमैन के अनुसार पुरी मंदिर के जनजातीय मूल के इन सह -पुजारियों को भगवान जगन्नाथ के मूल जनजातीय पुजारी विश्ववसु का वंशज माना जाता है। भगवान के स्पर्श से जुड़ी सारी विधियां -अनुष्ठान यथा : भगवान को वस्त्र पहनाने और गर्भ ग्रह से बाहर ले जाने आदि की क्रिया इन्हीं द्वारा संपन्न होती है। यही सदियों से परंपरा रही है।उपर्युक्त इतिहासकारों नेअपने आलेखों /पुस्तकों में वैष्णव धर्म एवं जनजातीय धर्म के संलयन,उनके मध्य गतिशील रहे सांस्कृतिक आदान-प्रदान , परसंस्कृति ग्रहण (acculturation) आदि की शताब्दियों तक विभिन्न चरणों में पूर्ण हुई प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन किया है। ( 1. The Cult of Jagannath and the Regional Tradition of Orissa ,edited by Anncharlott Eschmann, Hermann Kulke ,Gaya Charan Tripathi .2.Hindus and Tribals - Quest for Co- Existence by G.N.Dash 3.Purans and Acculturation by Vijay Nath . 4.प्राचीन भारतीय धर्मों का इतिहास : कृष्ण मोहन श्रीमाली .5. वैष्णव धर्म का उद्भव और विकास / 6. सवर्ण और अवर्ण की उत्पत्ति : सुवीरा जायसवाल …आदि द्रष्टव्य ) यह तो सर्वज्ञात है कि जनजातीय समुदायों की पूजाआराधना के केंद्र में रूपी मानवीय स्वरूप की मूर्तियां सामान्य तौर पर नहीं रही हैं। वे वृक्षों ,पहाड़ों, चट्टानों ,अनगढ़ पत्थरों , मिट्टी की पिंड रूपी देवियों की ही मुख्य रूप से पूजा करते रहे हैं। आंध्र ,उत्कल , कोसल प्रदेश के जनजातीय समुदायों के बीच लकड़ी के खंभे को स्तंभेश्वरी या खंम्भेश्वरी देवी के रूप में पूजने की परंपरा रही है। वैष्णव धर्म विशेषज्ञ इतिहासकार सुवीरा जायसवाल के अनुसार ,’देवी स्तंभेश्वरी या उड़िया में खंम्भेश्वरी की पूजा आज भी पश्चिमी और मध्य उड़ीसा में बहुत प्रचलित है। तुंग और भंज राजवंशों के अभिलेखों से पता चलता है कि वे इन राजवंशों की इष्टदेवी और संरक्षिका थीं।’ इतिहासकार ऐशमन के अनुसार , ‘ इन लकड़ी के खंभों ,मिट्टी पिंडों , अनगढ़ पत्थरों की जनजातीय देवियों/देवताओं के पूजा प्रतीकों में मानवीय लक्षणों का आरोपण (आंखों या हाथों का आरोपण ) कर उन्हें शाक्त /शैव या वैष्णवधारा मेंसमाहित करने की प्रक्रिया लम्बी अवधि में पूर्ण हुई होगी।’ इस प्रकार जनजातीय खंम्भेश्वरी देवी कितने शताब्दियों पूर्व भगिनी सुभद्रा के विग्रह में परिवर्तित हुईं होंगी , इसका बस अनुमान ही लगाया जा सकता है। मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश और उड़ीसा में जहां स्तंभेश्वर या खम्भेश्वरी देवी की आराधना होती रही थी उन्हीं स्तंभों या खंभों को फाड़कर नरसिंह भगवान के अवतरित होने की कल्पना किस उर्वर मस्तिष्क की उपज रही होगी इसका अनुमान भी लगाना कठिन है। लेकिन यह सत्य है कि उड़ीसा एवं आंध्र प्रदेश में नरसिंह- पूजा अत्यंत ही लोकप्रिय है। इतिहासकार गया चरण त्रिपाठी के अनुसार ,’उड़ीसा राज्य में नरसिंह भगवान के मंदिरों की संख्या कुल 105 ( एक सौ पाँच ) हैंऔर 1961 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार आंध्र प्रदेश में कुल 169 ( एक सौ उनहत्तर ) नरसिंह देव मंदिर हैं। इतिहासकारों के अनुसार नरसिंह भगवान पूर्व में मूलतः आदिवासी देवता के रूप में पूजे जाते रहे हैं। ध्यातव्य है कि आंध्र की जनजातियां ,यथा : चेंचू और बोआ उन्हें अपना संबंधी मानती हैं। इन्हीं जनजातीय देवता नरसिंह का विष्णु के अवतार के रूप में अवतरण ( वैष्णवीकरण ) फिर उन्हीं नरसिंह भगवान से भगवान जगन्नाथ में रूपांतरण भी सांस्कृतिक आदान - प्रदान,परसंस्कृति - ग्रहण की दीर्घ अवधि तक चली प्रक्रिया का परिणाम रहा है। इतिहासकार ऐशमैन के अनुसार , ‘भगवान नरसिंह का भगवान जगन्नाथ की धार्मिक धारा में आज भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। आज भी वे पुरी मंदिर केअभिभावक देवता हैं। पूजा का प्रसाद आज भी सबसे पहले उन्हें ही अर्पित किया जाता है। रथ यात्रा के पूर्व जो भगवान जगन्नाथअपनी ‘बीमारी’ के कारण दर्शन नहीं देते हैं तो उस अवधि में मुख्य पूजा भगवान नरसिंह की ही होती है। पुरी के पंडों के इष्ट देव भगवान नरसिंह ही हैं। नए पंडे की दीक्षा भगवान नरसिंह की पूजा -अर्चना से ही प्रारंभ होती है। इतिहासकार गया चरण त्रिपाठी के अनुसार, ‘नवकलेवर अनुष्ठान’ यानी कि प्रतिवर्ष भगवान जगन्नाथ,अग्रज बलभद्र एवं भगिनी सुभद्रा के विग्रहों के नवीनीकरण हेतु पवित्र वृक्ष /दारू की खोज एवं विग्रह निर्माण प्रक्रिया भी भगवान नरसिंह से सम्बद्ध है। यह सारी प्रक्रियाओं के क्रम में भगवान नरसिंह के मंत्रों का ही जाप किया जाता है। यही pपरंपरा है। यह भी ध्यातव्य है कि इस ‘ नव कलेवर अनुष्ठान’ यानी की पवित्र दारू / वृक्ष की खोज से लेकर विग्रहों के निर्माण तक की जिम्मेदारी मंदिर के जनजातीय समुदायों के सहायक पुजारियों के कंधों पर ही रहती है। ‘ राजा इंद्रद्युम्न की कथा के अनुसार भी पवित्र दारू से जुड़े स्वप्न के क्रम में राजा को भगवान नरसिंह की ही आकृति दिखाई दी थी। उपर्युक्त सारे तथ्य, यथा : देवी खम्भेश्वरी,भगवान नरसिंह ,भगवान जगन्नाथ की भक्ति धारा के शताब्दियों तक गतिमान चरणबद्ध विकास का इतिहास, एकओर इनकी जनजातीय पृष्ठभूमि को रेखांकित करता है तो दूसरी ओर हमारी पवित्र भारत भूमि की विविध - बहुरंगी धार्मिक और सांस्कृतिक स्वरूपों के सुंदर संलयन की छवि का भी प्रकटीकरण करता है। अपने राष्ट्र की यह उज्ज्वल विरासत के हमारे हृदय को अत्यंत गर्व से भर देता है।
Got any issue? Want to send feedback to solve the problem? Let us know.
एतद द्वारा सभी भक्तजनों से निवेदन है कि भगवान जगन्नाथ महाप्रभु और मंदिर के सन्दर्भ में जो भी जानकारियां विभिन्न स्रोतों, यथा : धार्मिक इतिहास की पुस्तकों, अन्य सूचनाओं एवं बातचीत के आधार पर एकत्रित की गयी, वही इस वेबसाइट पर उपलब्ध कराने का यह हमारा लघु प्रयास है।
हमारा मानना है कि ऐसी बहुत सारी जानकारियां, सूचनाएं होंगी जो हमारे संज्ञान में अभी तक नहीं है या यह भी कि जो सूचनाएं वेबसाइट पर दी गयी है उसमे कतिपय कमियां हो सकती है।
अतएव इस सन्दर्भ में आप सबों से अनुरोध है की भगवाम जगन्नाथ महाप्रभु उनके धुरवा, रांची स्थित इस प्राचीन मंदिर से सम्बंधित कोई भी छूटी हुई सूचना या जानकारी आपके पास हो या हमारे द्वारा दी गयी जानकारी में कुछ त्रुटियाँ हो तो प्रदत ईमेल से निसंकोच में सूचित करे।
नयी जानकारी को सम्मिलित करने एवं त्रुटियों के निवारण हेतु या न्यास समिति आपके प्रति सदा आभारी रहेगी।
मंगलकामनाओं के साथ,
जगन्नाथपुर मंदिर न्यास समिति।